हल्दी
एक महत्वपूर्ण मसाले वाली फसल है जिसका उपयोग औषिध से लेकर अनेकों कार्यो में किया
जाता है. इसके गुणों का जितना भी बखान किया जाए थोड़ा ही है, क्योंकि यह फसल गुणों से परिपूर्ण है इसकी खेती आसानी से की जा सकती है
तथा कम लागत तकनीक को अपनाकर इसे आमदनी का एक अच्छा साधन बनाया जा सकता है.
यदि
किसान भाई इसकी खेती ज्यादा मात्र में नहीं करना चाहते तो कम से कम इतना अवश्य
करें जिसका उनकी प्रति दिन की हल्दी की मांग को पूरा किया जा सकें. निम्नलिखित
शास्त्र वैज्ञानिक पद्धतियों को अपना कर हल्दी की खेती सफलता पूर्वक की जा सकती
है|
हल्दी
की फसल के लिये जलवायु –
हल्दी
मुख्यतया उष्णकटिबंधीय देशो में उगाई जाती हैं। हल्दी की खेती के लिए गर्म आद्रता
वाली जलवायु की आवशयकता होती हैं। हल्दी की बुवाई, अंकुरण एवं जमाव
के समय अपेक्षाकृत कम वर्षा एवं पोधो की वृद्धि के समय अधिक वर्षा उपयुक्त रहती
हैं। इसकी खेती के 20 से 25 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान एवं समुद्र ताल से 1200 से
1500 मीटर की उचाई तक के सथानो पर भी सफलतापूर्वक उगाई जा सकती हैं। इसकी पैदावार
125- 200 से. मी. वर्षा वाले क्षेत्रो में अच्छी होती हैं।
भूमि का चुनाव और तयारी –
हल्दी
की खेती बलुई दोमट या मटियार दोमट मृदा में सफलतापूर्वक की जाती है| जल निकास की
उचित व्यवस्था होना चाहिए. यदि जमीन थोड़ी अम्लीय है तो उसमें हल्दी की खेती
सफलतापूर्वक की जा सकती है| हल्दी की खेती हेतु भूमि की अच्छी तैयारी करने
की आवश्यकता है क्योंकि यह जमीन के अंदर होती है जिससे जमीन को अच्छी तरह से
भुरभुरी बनाया जाना आवश्यक है. मोल्ड बोल्ड प्लाऊ से कम से कम एक फीट गहरी जुताई
करने के बाद दो तीन बार कल्टीवेटर चलाकर जमीन को अच्छी तरह से तैयार कर लेना चाहिए
और इसमें पाटा चलाकर जमीन को समतल कर लें एवं बड़े ढ़ेलो को छोटा कर लेना चाहिए.
हल्दी की उन्नतशील किस्में -
1. सी.एल.326 माइडुकुर - लीफ
स्पाॅट बीमारी की अवरोधक प्रजाति है, लम्बे पंजे वाली, चिकनी, नौमाह में तैयार होती है।उत्पादन क्षमता
200-300 क्विं./हेक्टेयर तथा सूखने पर 19.3 प्रतिशत हल्दी मिलती हैं।
2. सी.एल. 327 ठेकुरपेन्ट - इसके
पंजे लम्बे, चिकने एवं चपटे होते हैं। परिपक्वता अवधि 5 माह तथा
उत्पादन क्षमता 200-250 क्विं./हेक्टर सूखने पर 21.8 प्रतिशत हल्दी प्राप्त होती
हैं।
3. कस्तूरी - यह
शीघ्र (7 माह) में तैयार होती हैं। इसके पंजे पतले एवं सुगन्धित होते हैं। उत्पादन
150-200 कुन्तल प्रति हेक्टेयर 25 प्रतिशत सूखी हल्दी मिलती हैं।
4. पीतांबरा - यह
राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित है, यह अधिक उत्पादन
देती है। आई.सी.ए.आर. द्वारा स्थापित हाई अल्टीट्यूट अनुसंधान केन्द्र पोटांगी
(उड़ीसा) द्वारा उत्पादन की गई प्रजातियां निम्नलिखित हैं जो म.प्र. के लिए
उपयुक्त हैं।
रोमा - यह
किस्म 250 दिन में परिपक्व होती हैं। उत्पादन 207 क्विंटल/हेक्टेयर शुष्क हल्दी
31.1 प्रतिशत, ओलियोरोजिन 13.2 प्रतिशत इरोन्सियल आयल 4.4 प्रतिशत
सिंचित एवं असिंचित दोनों के लिए उपयुक्त होती हैं।
सूरमा - इसकी परिपक्वता अवधि 250 दिन एवं उत्पादन 290
क्विं./हे. शुष्क हल्दी 24.8 प्रतिशत, ओलियोरोजीन 13.5 प्रतिशत,
इरोन्सियल आॅयल 4.4 प्रतिशत उपयुक्त होती हैं।
सोनाली - इसकी अवधि 230 दिन, उत्पादन 270 क्विंटल/हे. शुष्क हल्दी 23 प्रतिशत, ओलियोरोजिन
114 प्रतिशत इरोन्सियल आयल 4.6 प्रतिशत होता हैं। इस वर्ग की कोयम्बटूर-1, 35 एन, पीटीएस-43, पीसीटी-8
जातियां भी हैं। इसके अतिरिक्त दवा के लिए सफेद हल्दी कर्कुमा अमाड़ा एवं प्रसाधन
सामग्री हेतु कुर्कुमा एरोमोटिका की भी कई जातियां तैयार की गयी हैं।
बीज बुवाई –
बीज
की मात्रा कंद के वजन के अनुसार घटती बढती है इसकी रोपाई हेतु 2500 किलोग्राम कंद
की मात्रा प्रति हेक्टेयर रोपाई में लगती हैI कांडो का शोधन 0.25 प्रतिशत
एगलाल के घोल से 30 मिनट घोल में डुबाकर रखना चाहिए इसके पश्चात निकालकर छाया में
सुखाकर बुवाई बुवाई करनी चाहिएI खेत तैयारी के पश्चात बनाई गयी मेंड़ों पर सिंचाई
करके नमी होने पर लाइन से लाइन की दूरी 30 से 40 सेंटीमीटर
तथा कंद से कंद की दूरी 20 से 25 सेंटीमीटर
रखते हुए 5 से 7 सेंटीमीटर की गहराई
पाए बुवाई करनी चाहिएI बुवाई का सबसे उपयुक्त समय अप्रैल से
मई तक होता हैI बुवाई के समय पर्याप्त नमी रहना अति आवश्यक
हैI अप्रैल - मई में बुवाई करने पर वर्षा से नुकसान से बचाया
जा सकता हैI हल्दी की बुवाई के बाद फसल में नमी पर्याप्त
रखने हेतु मल्चिंग की जाती है जिससे कि जमाव अच्छा हो सकेI मल्चिंग पौधों की हरी पत्तियो, पुवाल, भूसे एवं ढाक की पत्तियो से की जाती हैI मल्चिंग में
लगभग 12500 से 15000 किलोग्राम प्रति
हेक्टेयर हरी पत्तियो की मात्रा लगती हैI भली भांति जमाव हो
जानी के बाद सभी मल्चिंग के सामान को हटा दिया जाता हैI
खाद तथा उर्वरक –
20
से 25 टन हेक्टेयर के मान से अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद का उपयोग करना चाहिए
क्योंकि गोबर की खाद डालने से जमीन अच्छी तरह से भुरभुरी बन जायेगी तथा जो भी
रासायनिक उर्वरक दी जायेगी उसका समुचित उपयोग हो सकेगा. इसके बाद 100-120 किलो
ग्राम नत्रजन 60-80 किलोग्राम स्फुर 80-100 तथा किलोग्राम हेक्टेयर के मान से
पोटाश का प्रयोग करना चाहिए. हल्दी की खेती हेतु पोटाश का बहुत महत्व है जो किसान
इसका प्रयोग नही करते है हल्दी की गुणवत्ता तथा उपज दोनों ही प्रभावित होती है.
नाइट्रोजन की एक चैथाई मात्र तथा स्फुर एवं पोटाश की पूरी मात्र बोनी के समय दी
जानी चाहिए एवं नाइट्रोजन की बची मात्र की दो भागों में बांटकर पहली मात्र बुआई के
40 से 60 दिनों बाद तथा दूसरी मात्र 80 से 100 दिनों बाद देना चाहिए|
हल्दी की फसल में सिंचाई –
हल्दी
में ज्यादा सिंचाई की आवश्यकता नहीं है लेकिन यदि फसल गर्मी में ही बुवाई जाती है
तो वर्षा प्रारंभ होने के पहले तक चार-पांच सिंचाई की आवश्यकता पड़ती हैं. मानसून
आने के बाद सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती है. किंतु यदि बीच में वर्षा नहीं होती या
कि सुखा पड़ जाता है तथा अक्टूबर के बाद यदि बारिश नहीं हो पाती है तो ऐसी
परिस्थिति में 20-25 दिन के अंतराल पर सिंचाई करना आवश्यक हो जाता है. नवम्बर माह
में पत्तियों का विकास तथा धनकंद की मोटाई बढ़ना आरंभ हो जाता है तो उस समय उपज
ज्यादा प्राप्त करने के लिए मिट्टी चढ़ाना आवश्यक हो जाता है जिससे कंदो का विकास
अच्छा होता है तथा उत्पादन में वृद्धि हो जाती है|
जल निकास –
जल
निकास का उचित प्रबंध करना चाहिए अन्यथा हल्दी की फसल पर विपरीत प्रभाव पड़ता है
तथा पौधे एवं पत्तियां पीली पड़ने लगती है अत: समय-समय पर वर्षा के ज्यादा पानी को
खेत से बाहर निकालने की उचित व्यवस्था होनी चाहिए.
खरपतवार नियंत्रण –
हल्दी
की अच्छी फसल होने के लिए दो-तीन निराई करना आवश्यक हो जाता है. पहली निराई बुआई
के 80-90 दिनों बाद तथा दूसरी निराई इसके एक माह बाद करना चाहिए किन्तु यदि
खरपतवार पहले ही आ जाते है तथा ऐसा लगता है कि फसल प्रभावित हो रही है तो इसके
पहले भी एक निराइ की जा सकती है. इसके साथ ही साथ समय-समय पर गुड़ाई भी करते रहना
चाहिए जिससे वायु संचार अच्छा हो सके तथा हल्दी की फसल का पूर्ण विकास हो सके जो कि
उत्पादन से सीधा संबंध रखता है|
कीट नियंत्रण –
हल्दी
के कंदो में प्रकंद बेधक कीट लगता है इसके प्रकोप से कंदो में गलन एवं सड़न पैदा हो
जाती हैI इसको रोकने हेतु भूमि में बुवाई के समय मैलाथियान या क्लोरोपायरीफास का
प्रयोग करना चाहिएI खड़ी फसल में मैलाथियान 50 ई.सी. को 250
मिलीलीटर प्रति 100 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए या कार्बराइल धूल को
200 ग्राम प्रति 100 लीटर पानी में घोलकर 10 से 15 दिन के अंतराल पर छिड़काव करना
चाहिएI
रोग नियंत्रण –
हल्दी
में कंद विगलन रोग लगता है इसके साथ ही पर्ण चित्ती रोग भी लगता हैI इनकी रोकथाम हेतु रोग रहित प्रकंद बोने चाहिए तथा कंदो का शोधन करके बुवाई
करनी चाहिएI खड़ी फसल में कार्बेन्डाजिम 1 ग्राम प्रति लीटर
पानी या कापर आक्सीक्लोराइड 3 ग्राम प्रति लीटर या मैंकोजेब 2 ग्राम प्रति लीटर
पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिएI
फसल की खुदाई –
मई-
जून में बोई गई फसल फरवरी माह तक खोदने
लायक हो जाती है इस समय धन कंदो का विकास हो जाता है और पत्तियां पीली पड़कर सूखने लगती है तभी समझना चाहिए कि
हल्दी पक चुकी है तथा अब इसकी कटाइ या खोदाइ की जा सकती है. पहले पौधो के दराती
हसिए से काट देना चाहिए तथा बाद में हल से जुताई करके हल्दी के कंदों को आसानी से
निकाला जा सकता है जहां पर भी जरूरत समझी जाए कुदाली का भी प्रयोग किया जा सकता
है. हल्दी की अगेती फसल सात-आठ आठ-नौ माह तथा देर से पकने वाली 9-10 माह में पककर तैयार होती है|
हल्दी की उपज –
जहां
पर उपरोक्त मात्र में उर्वरक तथा गोबर की खाद का प्रयोग किया गया है तथा सिचिंत
क्षेत्र में फसल बोई गई है तो 50-100 किवंटल प्रति हेक्टेयर तथा असिंचित क्षेत्रों से 50-100 किवंटल प्रति
हेक्टेयर कच्ची हल्दी प्राप्त की जा सकती है. यह ध्यान रहे कि कच्ची हल्दी को
सूखाने के बाद 15-25 प्रतिशत ही रह जाती है|
बीज सामग्री का भंडारण –
खुदाई
कर उसे छाया में सुखा कर मिट्टी आदि साफ करें। प्रकंदों को 0.25 प्रतिशत इण्डोफिल
एम-45 या 0.15 प्रतिशत बाविस्टीन एवं 0.05 प्रतिशत मैलाथियान के घोल में 30 मिनिट
तक उपचारित करें। इसे छाया में सुखाकर रखें। हल्दी भंडारण के लिए छायादार जगह पर
एक मीटर चैड़ा, 2 मीटर लम्बा तथा 30 से.मी. गहरा गड्ढा खोदें। जमीन
की सतह पर धान का पुआल या रेत 5 से.मी. नीचे डाल दें। फिर उस पर हल्दी के प्रकन्द
रखें इसी प्रकार रेत की दूसरी सतह बिछा कर हल्दी की तह मोड़ाई करें। गड्ढा भर जाने
पर मिट्टी से ढॅंककर गोबर से लीप दें।
हल्दी उपचार -
हल्दी
को खोदते समय पूरी तौर से सावधानी बरतनी चाहिए जिससे धन कन्दो की कम हानि हो और
समूची गाठें निकाली जा सकें गाठों को पहले छोटा-छोटा कर लिया जाता है इसके बाद
बड़े-बड़े कड़ाहों में डालकर इसको उबाला जाता है. उबालते समय थोड़ा गोबर या फिर
हल्दी की पत्तियों को ही पानी के साथ डालकर उबाला जाता है. ऐसा करने से रंग कुछ
गहरा हो जाता है तथा हल्दी की गुणवता बढ़ जाती है | जिससे बाजार में भाव अच्छा
मिलता है. लगभग तीन-चार घंटे पकाने के बाद गाठें अंगुलियों की बीच दबाने पर आसानी
से दब जाती है तो कड़ाहों से निकाल कर सूखने के लिए धूप में रखा जाता है जिससे
गाठें अच्छी तरह से सूख जावें. इसके बाद किसी खुरदूरे चीज से गाठों को रगड़ कर साफ
कर लिया जाता है बड़े पैमाने पर यह कार्य मशीनों पर किया जाता है और इस तरह से हल्दी
की गाठें तैयार हो जाती है|
दोस्तों,
तो ये थी हमारे किशन भाई हल्दी की खेती कैसे करें और अधिक मुनाफा कैसे कमायें, हमे
आशा है आपको हल्दी की खेती की जानकारी समझ में आ गई होगी | फिर भी आपका कोई भी
सवाल है या सुझाव है, तो हमें कमेंट बॉक्स में बता सकते हैं, हमसे पूछ सकते है,
दोस्तों इस ब्लॉग पर आए भी खेती बड़ी से सम्बंधित जानकारी दी जाएगी, जानकारी अच्छी
लगे तो इस अपने दोस्तों के शत सोशल साईट पर शेयर जरुर करें, और हमारी इस वेबसाइट
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धन्यवाद
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