आलू
भारत की सबसे महत्वफपूर्ण फसल है। तमिलनाडु एवं केरल को छोडकर आलू सारे देश में
उगाया जाता है। किसान आज से लगभग 7000 साल पहले से आलू उगा रहे हैं।
आलू
को सब्जियों का राजा कहा जाता है, भारत में शायद ही कोई ऐसा रसोई घर होगा, जहाँ पर
आलू ना दिखे । इसकी मसालेदार तरकारी, पकौड़ी, चॉट, पापड
चिप्स जैसे स्वादिष्ट पकवानो के अलावा अंकल चिप्स, भुजिया और
कुरकुरे भी हर जवां के मन को भा रहे हैं। प्रोटीन, स्टार्च,
विटामिन सी और के अलावा आलू
में अमीनो अम्ल जैसे ट्रिप्टोफेन, ल्यूसीन, आइसोल्यूसीन आदि काफी मात्रा में पाये जाते है जो शरीर के विकास के लिए
आवश्यक है।
आलू
के लियें जलवायु –
आलू
के लिए छोटे दिनों कि अवस्था आवश्यक होती है भारत के बिभिन्न भागो में उचित जलवायु
कि उपलब्धता के अनुसार किसी न किसी भाग में सारे साल आलू कि खेती कि जाती बढवार के
समय आलू को मध्यिम शीत की आवश्यवकता होती है। मैदानी क्षेत्रो में बहुधा शीतकाल (रबी) में आलू की खेती
प्रचलित है । आलू की वृद्धि एवं विकास के लिए इष्टतम तापक्रम 15- 25 डि से के मध्य होना चाहिए। इसके अंकुरण के लिए लगभग
25 डि से. संवर्धन के लिए 20 डि से. और कन्द विकास के लिए 17 से 19 डि से. तापक्रम
की आवश्यकता होती है, उच्चतर तापक्रम (30 डि से.)
होने पर आलू विकास की प्रक्रिया प्रभावित
होती है अक्टूबर से मार्च तक, लम्बी रात्रि तथा चमकीले छोटे दिन आलू बनने और बढ़ने के लिए अच्छे होते है।
बदली भरे दिन, वर्षा तथा उच्च आर्द्रता का मौसम आलू की फसल
में फफूँद व बैक्टीरिया जनित रोगों को फैलाने के लिए अनुकूल दशायें हैं।
भूमि
व उसकी तयारी –
आलू
को क्षारीय मृदा के अलावा सभी प्रकार के मृदाओ में उगाया जा सकता है परन्तु जीवांश
युक्त रेतीली दोमट या सिल्टी दोमट भूमि इसकी खेती के लिए सर्वोत्तम है भूमि में
उचित जल निकास का प्रबंध अति आवश्यक है मिटटी का P H मान 5.2 से
6.5 अत्यंत उपयुक्त पाया गया है - जैसे जैसे यह P H मान ऊपर
बढ़ता जाता है दशाएं अच्छी उपज के लिए प्रतिकूल हो जाती है| आलू के कंद मिटटी के
अन्दर तैयार होते है, अत मिटटी का भली भांति भुर भूरा होना
नितांत आवश्यक है पहली जुताई मिटटी पलटने वाले हल से करे दूसरी और तीसरी जुताई
देसी हल या हीरो से करनी चाहिए यदि खेती में धेले हो तो पाटा चलाकर मिटटी को
भुरभुरा बना लेना चाहिए बुवाई के समय भूमि में पर्याप्त नमी का होना आवश्यक है यदि
खेत में नमी कि कमी हो तो खेत में पलेवा करके जुताई करनी चाहिए
आलू
की किस्में –
केंद्रीय
आलू अनुसंधान शिमला की ओर से आलू की कई किस्में विकसित की गई हैं,जो इस प्रकार हैं।
कुफरी
अलंकार - इस किस्म में फसल 70 दिनों में तैयार हो जाती है
मगर यह किस्म पछेती अंगमारी रोग के लिए कुछ हद तक प्रतिरोधी है। यह किस्म भी प्रति
हेक्टेयर 200-250 क्विंटल उपज होती है।
कुफरी
चंद्र मुखी – आलू
की इस किस्म में फसल 80 से 90 दिनों में तैयार हो जाती है और उपज 200 से 250 क्विंटल
तक होती है।
कुफरी
नवताल जी 2524 - आलू
की इस किस्म में फसल 75 से 85 दिनों में तैयार हो जाती है। इसमें 200 से 250
क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज होती है।
कुफरी
बहार 3792 ई – इस
किस्म में फसल 90 से 110 दिनों में तैयार हो जाती है, जबकि गर्मियों में 100 से 135 दिनों में फसल तैयार होती है।
कुफरी
शील मान - आलू
की खेती की यह किस्म 100 से 130 दिनों में तैयार होती है, जबकि उपज 250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होती है।
कुफरी
ज्योति - इस किस्म में फसल 80 से 150 दिनों में तैयार हो
जाती है। यह किस्म 150 से 250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है।
कुफरी
सिंदूरी - इस
किस्म से आलू की फसल 120 से 125 दिनों में तैयार हो जाती है और 300 से 400 क्विंटल
प्रति हेक्टेयर उपज होती है।
कुफरी
बादशाह - आलू
की खेती में इस किस्म में फसल 100 से 130 दिन में तैयार हो जाती है और 250-275
क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज होती है।
कुफरी देवा - इस किस्म में आलू की फसल 120 से 125 दिनों में
तैयार हो जाती है और 300 से 400 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज होती है।
कुफरी
लालिमा - इस
किस्म में फसल सिर्फ 90 से 100 दिन में ही तैयार हो जाती है। यह अगेती झुलसा के
लिए मध्यम अवरोधी है।
कुफरी
लवकर - इस
किस्म में 100 से 120 दिनों में फसल तैयार हो जाती है और 300 से 400 क्विंटल प्रति
हेक्टेयर उपज होती है।
कुफरी स्वर्ण - इस
किस्म से फसल 110 दिन में तैयार हो जाती है और उपज 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर
होती है।
संकर
किस्में - कुफरी जवाहर जेएच 222 - इस किस्म में 90 से 110 दिन में फसल तैयार हो
जाती है और खेतों में अगेता झुलसा और फोम रोग की यह प्रतिरोधी किस्म है। इसमें 250
से 300 क्विंटल उपज होती है।
ई
4486 - 135
दिन में तैयार होने वाली फसल की इस किस्म में 250 से 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर
उपज तैयार होती है। यह किस्म हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, गुजरात
और मध्य प्रदेश के लिए अधिक उपयोगी है।
आलू
की नई किस्में - इसके
अलावा आलू की कुछ नयी किस्में भी हैं। इनमें कुफरी चिप्सोना-1, कुफरी चिप्सोना-2, कुफरी गिरिराज और कुफरी आनंद भी
शामिल है।
बुआई
का समय एवं बीज की मात्रा –
उत्त
र भारत में, जहॉ पाला पडना आम बात है, आलू
को बढने के लिए कम समय मिलता है। अगेती बुआई से बढवार के लिए लम्बा समय तो मिल
जाता है परन्तुप उपज अधिक नही होती क्योंकि ऐसी अगेती फसल में बढवार व कन्दब का
बनना प्रतिकूल तापमान मे होता है साथ ही बीजों के अपूर्ण अंकुरण व सडन का खतरा भी
बना रहता है। अत: उत्तर भारत मे आलू की बुआई इस प्रकार करें कि आलू दिसम्बर के अंत
तक पूरा बन जाऐ। उत्तर-पश्चिमी भागों मे आलू की बुआई का उपयुक्तब समय अक्तू्बर माह
का पहला पखवाडा है। पूर्वी भारत में आलू अक्तूबर के मध्य से जनवरी तक बोया जाती
है। इसके लिए 25 से 30 क्विंटल बीज प्रति हैक्टेयर पर्याप्त होता है।
बुआई
की विधि –
पौधों
में कम फासला रखने से रोशनी,पानी और पोषक तत्वोंह के लिए
उनमें होड बढ जाती है फलस्वपरूप छोटे माप के आलू पैदा होते हैं।अधिक फासला रखने से
प्रति हैक्टे,यर में पौधो की संख्या कम हो जाती है जिससे आलू
का मान तो बढ जाता है परन्तुल उपज घट जाती है। इसलिए कतारों और पौधो की दूरी में
ऐसा संतुलन बनाना होता है कि न उपज कम हो और न आलू की माप कम हो। उचित माप के बीज
के लिए पंक्तियों मे 50 से.मी. का अन्तलर व पौधों में 20 से 25 से.मी. की दूरी
रखनी चाहिए।
आलू
की खेती में सिंचाई –
आलू
कि सफल खेती के लिए सिंचाई का महत्व पूर्ण योगदान है मैदानी क्षेत्रो में पानी कि
उपलब्धता होने पर ही खेती कि जा सकती है परन्तु पहाड़ी क्षेत्रो में आलू कि खेती
वर्षा पर निर्भर करती है इसकी खेती में पानी कि कमी किसी भी अवधी में होने से आलू
का बढ़वार , बिकास और कंद के निर्माण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता
है ऐसी जगह जहाँ पानी ठहरता हो वंहा इससे हानी होती है आलू कि पहली सिंचाई अंकुरण
के उपरांत करनी चाहिए इसके बाद कि 10-12 दिन के अंतराल पर करे प्रत्येक बार हलकी
सिंचाई करनी चाहिए इस बात का ध्यान सिंचाइयाँ रहे खूंड तिन चौथाई से अधिक न डूबने
पाए कंद निर्माण के समय पानी कि कमी किसी भी हालत में नहीं होनी चाहिए इसकी खेती
500 लगभग मी.ली. पानी कि आवश्यकता होती है आलू कि खुदाई करने के 10 दिन पूर्ब
सिंचाई बंद कर देनी चाहिए इससे आलू के कंदों का छिलका कठोर हो जाता है जिससे खुदाई
करते समय छिलका नहीं छिलता और कंदों के भण्डारण क्षमता में बृद्धि हो जाती है |
खरपतवार
प्रबंधन –
आलू
की बुवाई के 20-25 दिन बाद पौधे 8-10 सेमी० ऊचाई के हो जातें हैं, तो लाइनों के बीच स्प्रिंग टायिन कल्टीवेटर या खुरपी से खरपतवार निकालने
का कार्य करे, मैदानी क्षेत्रो में आलू की फसल में खरपतवारों
का प्रकोप बुवाई के 4-6 सप्ताह बाद अधिक
होता है, खरपतवारों के रासायनिक नियंत्रण के लिए पेंडामेथलिन
30% का 3.3 लीटर मात्रा का 100 लीटर पानी में घोलकर बुवाई के 1-2 दिन बाद तक
छिडकाव कर देना चाहिए I
कीट
नियंत्रण –
रोग
के साथ-साथ आलू कि फसल में कीट भी अपना प्रभाव दिखातें हैं, कीट नियंत्रण के लिए जैसे माहू या एफिड, माहू आलू कि
फसल में प्रत्यक्ष रूप से हानि नहीं पहुँचाता बल्कि रोग मुक्त बीज उत्पादन पर रोक
लगाने में अहम् भूमिका है, इसके नित्रायण के लिए मैदानी भागो
में आलू कि बुवाई 15 अक्तूबर तक तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश के मैदानी भागों में 25
अक्तूबर तक कर लेनी चाहिएI फसल को माहू से बचाने के लिए
फोरेट 10 जी, 100 कि०ग्रा० प्रति हैक्टर कि दर से मिटटी
चढाने के समय प्रयोग करना चाहिए, जब फसल पर माहू का प्रकोप
दिखाई पड़े तो डाईमीथोएट 30 ईसी० कि 1 लीटर मात्रा 1000 लीटर पानी में घोलकर प्रति
हैक्टर कि दर आलू कि फसल में छिडकाव करना चाहिएI इसके साथ
साथ किसान भाइयों दूसरा कीट लीफ हापर आलू कि फसल में लगता है, लीफ हापर के निम्फ तथा प्रौढ़ हरी
पत्तियों का रस चूसते हैं, इसकी रोकथाम के लिए मोनोक्रोटोफास
40 ई सी. कि 1.2 लीटर कि मात्रा को 1000 लीटर पानी में मिलकर छिडकाव करें आवश्यकता पड़ने पर दूसरा छिडकाव 10-15 दिन के
अन्तराल पर करना चाहिए I
रोग
नियंतरण –
रोग
नियंत्रण के लिए जैसे झुलसा रोग लगता है, यह रोग पौंधो की पत्तियों,
डंठलों, एवं कन्दो सभी पर लगता है, इस रोग के लक्षण पत्तियों में हलके पीले धब्बे दिखाई देते हैं पत्तियों के
निचले भाग पर इन धब्बो में अंगूठी नुमा सफेद फफूंदी आ जाती है, इस रोग के नियंत्रण के लिए प्रतिरोधी किस्मो की बुवाई करनी चाहिए, फसल में लक्षण दिखाई देने के पूर्व मैन्कोजेब 0.2% का घोल बना कर
छिडकाव8-10 दिन के अन्तराल पर करते रहना चाहिए, फसल में
भयंकर प्रकोप होने पर मेटालेक्सिल युक्त दवाओं में 0.25 % के घोल का 1-2 बार
छिडकाव करना अति आवश्यक है, इसके पश्चात साथ ये भी देखना है
कि एक रोग कामन स्केब होता है, इस रोग से फसल कि पैदावार में
कोई कमीं नहीं आती लेकिन कन्द भददे हो जाते हैं, रोग ग्रस्त
कन्दो के छिल्के पर लाल सा या भूरे धब्बे बनतें हैं, बीज
वाले अलुओ को बुवाई से पहले 3% बोरिक एसिड के घोल में 30 मिनट तक उपचारित करना
चाहिए I
फसल
की खुदाई –
अगेती
फसल में अधिक कीमत प्राप्त करने के लिए बुवाई के 60-70 दिन के उपरांत खुदाई करनी
चाहिए, जिससे कि आप को अच्छा पैसा मिल सके, मुख्य फसल कि
खुदाई 20-30 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान पहुँचने से पहले कर ले ताकि फसल अधिक तापमान
पर म्रदुगलन तथा काला गलन जैसे रोगों से फसल को बचाया जा सकेI खेत में खुदाई के समय कटे और सड़े आलू के कंदों को अलग कर देना चाहिए,
खुदाई छंटाई और बोरियों में भरते समय और बाजार भेजने के समय इस बात
का ध्यान रखना चाहिये कि आलू काछिलका न उतरे साथ ही उन्हें किसी प्रकार का क्षति
नहीं होनी चाहिए तो बाजार भाव अच्छा रहता है|
आलू
की उपज –
आलू
कि जल्दी तैयार होने वाली पैदावार अपेक्षाकृत कम होती है, जब कि लम्बी अवधि वाली किस्मे अधिक उपज देती हैं, सामान्य
किस्मो कि अपेक्षा संकर किस्मो से अधिक पैदावार मिलती है, संकर
किस्मों कि उपज 600-800 कुंतल तक प्रति हैक्टर प्राप्त होती है, तथा सामान्य किस्मों से उपज 350-400 कुंतल तक उपज प्रति हैक्टर प्राप्त
होती है I
भण्डारण
–
आलू
शीघ्र ख़राब होने वाली वस्तु है अत इसके लिए अच्छे भण्डारण कि सुबिधा का होना
नितांत आवश्यक है पर्वतीय क्षेत्रो में कम तापमान होने के कारण वंहा भण्डारण कि
कोई बिशेष समस्या नहीं होती है भण्डारण कि बिशेष समस्या मैदानी भागो में होती है
मैदानी क्षेत्रो में आलू को ख़राब होने से बचाने के लिए शीत भंडार गृहों में रखने
कि आवश्यकता होती है इन शीत भंडार गृहों में तापमान डिगरी 1 से 2.5 डिग्री
सेल्सियस और आपेक्षिक आद्रता 90-95% होती है
दोस्तों, तो ये थी हमारे किशन भाई आलू की खेती कैसे करें और अधिक मुनाफा कैसे
कमायें, हमे आशा है आपको आलू की खेती की जानकारी समझ में आ
गई होगी| फिर भी आपका कोई भी सवाल है या सुझाव है, तो हमें कमेंट बॉक्स में बता सकते हैं, हमसे पूछ
सकते है, दोस्तों इस ब्लॉग पर आए भी खेती बड़ी से सम्बंधित
जानकारी दी जाएगी, जानकारी अच्छी लगे तो इस अपने दोस्तों के
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धन्यवाद
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