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अमरुद की खेती कैसे करें | अमरुद की खेती से कमाइए लाखों रुपए - Amrud ki kheti kaise karen -

अमरूद में विटामिन "सी' अधिक मात्रा में पाया जाता है। इसके अतिरिक्त विटामिन "ए' तथा "बी' भी पाए जाते हैं। इसमें लोहा, चूना तथा फास्फोरस अच्छी मात्रा में होते हैं। अमरूद की जेली तथा बर्फी (चीज) बनाई जाती है। इसे डिब्बों में बंद करके सुरक्षित भी रखा जा सकता है।

Amrud ki kheti kaise karen

फसल के लिए जलवायु
वैसे तो अमरूद की खेतीको किसी भी तरह के जलवायु में किया जा सकता है। लेकिन फिर भी अमरूद की खेती के लिए Hot और dry climate सबसे सही रहता है। गर्म area में temperature  और humidity कि पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध रहने पर फल सालो भर लगते है। जिस area में 124 cm से ज्यादा बारिस होती है उस area में अमरुद की खेती करना सही नहीं माना जाता है । अधिक पाले से अमरुद के छोटे छोटे पौधे को नुकसान पहुँचता है ।

भूमि का चयन –
अमरूद को लगभग प्रत्येक प्रकार की भूमि में उगाया जा सकता है। परंतु अच्छे उत्पादन में उपजाऊ बलुई दोमट भूमि अच्छी रहती है। बलुई भूमि मिटटी 4.5 में पीएच मान तथा चूनायुक्त भूमि में 8.2 पीएच मान पर भी इसे सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। अधिक तापमान 6  से 6.5 पीएच मान पर प्राप्त होता है। कभी कभी क्षारीय भूमि में उकठा रोग के लक्षण नजर आते है। इलाहाबादी सफेदा में 0.35 % खारापन सहन करने कि क्षमता रहती है ।

खेत की तैयारी –
इसके पौधे की रोपाई हेतु पहले 60 सेमी० चौड़ाई, 60 सेमी० लम्बाई, 60 सेमी० गहराई के गड्ढे तैयार करके 20-25 किग्रा सड़ी गोबर की खाद 250 ग्राम सुपर फास्फेट तथा 40-50 ग्राम फालीडाल धुल ऊपरी मिटटी में मिलाकर गड्ढो को भर कर सिचाई कर देते है इसके पश्चात पौधे की पिंडी के अनुसार गड्ढ़े को खोदकर उसके बीचो बीच लगाकर चारो तरफ से अच्छी तरह दबाकर फिर हल्की सिचाई कर देते है।

अमरुद की किस्मे –
अमरूद की प्रमुख किस्में जो बागवानी के लिए उपयुक्त पायी गयी वे इस प्रकार हैं। इलाहाबादी सफेदा, सरदार 49 लखनऊ, सेबनुमा अमरूद, इलाहाबादी सुरखा, बेहट कोकोनट आदि हैं। इसके अतिरिक्त चित्तीदार, रेड फ्लेस्ड, ढोलका, नासिक धारदार, आदि किस्में हैं। इलाहाबादी सफेदा बागवानी हेतु उत्तम है। सरदार-49 लखनऊ व्यावसायिक दृष्टि से उत्तम प्रमाणित हो रही है। इलाहाबादी सुरखा अमरूद की नयी किस्म है। यह जाति प्राकृतिक म्युटेंट के रूप में विकसित हुई है।

अमरूद की रोपाई के लियें गड्ढो की तयारी –
इसके पौधे की रोपाई हेतु पहले 60 सेमी० चौड़ाई, 60 सेमी० लम्बाई, 60 सेमी० गहराई के गड्ढे तैयार करके 20 - 25 किग्रा सड़ी गोबर की खाद 250 ग्राम सुपर फास्फेट तथा 40 - 50 ग्राम फालीडाल धुल ऊपरी मिटटी में मिलाकर गड्ढो को भर कर सिचाई कर देते है इसके पश्चात पौधे की पिंडी के अनुसार गड्ढ़े को खोदकर उसके बीचो बीच लगाकर चारो तरफ से अच्छी तरह दबाकर फिर हल्की सिचाई कर देते हैI

अमरूद की पौध रोपण –
पौध रोपण के लिए जुलाई, अगस्त तथा सितम्बर माह को उपयुक्त मानते है जहा पर सिचाई की समस्या नहीं होती है वहाँ पर फरवरी मार्च में भी रोपण किया जा सकता है अमरूद के पौधो का लाईन से लाईन 5 मीटर तथा पौधे से पौधे 5 मीटर अथवा लाईन से लाईन 6 मीटर और पौधे से पौधे 6 मीटर की दूरी पर रोपण किया जा सकता हैI

खरपतवार प्रबंधन –
अमरुद के उत्पादन में प्रारम्भ में सघाई क्रिया पेड़ो की वृद्धि सुन्दर और मजबूत ढाचा बनाने के लिए की जाती है शुरू में मुख्य तना में जमीन से 90 सेमी० की उचाई तक कोई शाखा नहीं निकलने देना चाहिए इसके पश्चात तीन या चार शाखाये बढ़ने दी जाती है इसके पश्चात प्रति दूसरे या तीसरे साल ऊपर से टहनियों को काटते रहना चाहिए जिससे की पेड़ो की उचाई अधिक न हो सके यदि जड़ से कोइ फुटाव या किल्ला निकले तो उसे भी काट देना चाहिए।

खाद और उर्वरक –
पौधा लगाने से पहले गड्ढा तैयार करते समय प्रति गड्ढा 20 से 25 किग्रा सड़ी गोबर की खाद डालकर तैयार गड्ढे में पौध लगते है इसके पश्चात प्रति वर्ष 5 वर्ष तक इस प्रकार की खाद दी जाती है जैसे की एक वर्ष की आयु के पौधे पर 15 किलोग्राम गोबर की खाद, 260 ग्राम यूरिया, 375 ग्राम सुपर फास्फेट तथा 500 ग्राम पोटेशियम सल्फेट इसी प्रकार दो वर्ष के पौधे के लिए 30 किलोग्राम गोबर की खाद, 500 ग्राम यूरिया, 750 ग्राम सुपर फास्फेट एवं 200 ग्राम पोटेशियम सल्फेटI तीन साल के पौधे के लिए 45 किलोग्राम गोबर की खाद, 780 ग्राम यूरिया, 1125 ग्राम सुपर फास्फेट एवं 300 ग्राम पोटेशियम सल्फेटI और चार साल के पौधे के लिए 60 किलोग्राम गोबर की खाद, 1050 ग्राम यूरिया, 1500 ग्राम सुपर फास्फेट एवं 400 ग्राम पोटेशियम सल्फेट इसी तरह से पांच साल के पौधे के लिए 75 किलोग्राम गोबर की खाद, 1300 ग्राम यूरिया, 1875 ग्राम सुपर फास्फेट एवं 500 ग्राम पोटेशियम सल्फेट की आवश्यकता पड़ती हैI संस्तुति खाद की मात्रा पेड़ की आयु के अनुसार दो भागों में बांटकर एक भाग प्रति पेड़ जून में दूसरा भाग अक्टूबर में तने से एक मीटर की दूरी पर चारो ऒर वृक्षों के छत्र के नीचे किनारों तक डालना चाहिए इसके पश्चात तुरंत सिचाई कर देनी चाहिएI

जल प्रबंधन –
अमरुद उत्पादन में सिंचाई पर ध्यान देना अतिआवश्यक है। छोटे पौधे की सिचाई शरद ऋतू में 15 दिन के अन्तराल पर तथा गर्मियों में 7 दिन के अन्तराल पर करनी चाहिए लेकिन बड़े होने पर आवश्यकतानुसार सिचाई करनी चाहिए।

अमरूद के पौधे की कटाई छाटाई –
अमरुद के उत्पादन में प्रारम्भ में सघाई क्रिया पेड़ो की वृद्धि सुन्दर और मजबूत ढाचा बनाने के लिए की जाती है शुरू में मुख्य तना में जमीन से 90 सेमी० की उचाई तक कोई शाखा नहीं निकलने देना चाहिए इसके पश्चात तीन या चार शाखाये बढ़ने दी जाती है इसके पश्चात प्रति दूसरे या तीसरे साल ऊपर से टहनियों को काटते रहना चाहिए जिससे की पेड़ो की उचाई अधिक न हो सके यदि जड़ से कोइ फुटाव या किल्ला निकले तो उसे भी काट देना चाहिएI

कीट नियंत्रण –
अमरूद की फसल मख्खियां तथा छाल खाने वाली सुडी लगाती है मख्खियां नियंत्रण हेतु ग्रसित फल प्रति दिन इकठा करके नष्ट कर देना चाहिए सम्भव हो तो बरसात की फसल न ले तथा 500 मिली लीटर मेलाथियान 50 ई. सी. के साथ 5 किलो ग्राम गुड या चीनी को 500 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ छिडकाव करे यह 7 से 10 दिन के अन्तराल पर पर दुबारा करें सुडी के लिए सितम्बर अक्टूबर में 10 मिली लीटर मोनोक्रोटोफास या 10 मिली लीटर मेटासिड (मिथाइल पैराथियान ) को 10 लीटर पानी में मिलाकर तना की छाल के सूराखो के चारो ओर छाल पर लगाना चाहिए जिससे की कीट प्रभाव न करे।

रोग नियंत्रण –
अमरूद में उकठा रोग तथा श्याम वर्ण ,फल गलन या टहनी मार लगते है नियंत्रण के लिए उकठा रोग हेतु खेत साफ सुथरा रखना चाहिए अधिक पानी न लगे ,कर्वानिक खादों का प्रयोग तथा ऐसे पेड़ो को उखाड़ कर अलग कर देना चाहिए अन्य रोगो हेतु रोग ग्रस्त डालियों को काटकर 0.3% का कापर आक्सीक्लोराईड के घोल का छिडकाव दो या तीन 15 दिन के अन्तराल पर करना चाहिए।

फलों की तुड़ाई –
अमरूद के फलो की तुडाई कैची की सहायता से थोड़ी सी डंठल एवं एक दो पते सहित काटकर करनी चाहिए खाने में आधिकतर अधपके फल पसंद किये जाते है तुडाई दो दिन के अन्तराल पर करनी चाहिए।

फलों की उपज –
पौधे लगाने के दो वर्ष बाद फल मिलना प्रारम्भ हो जाते है पेड़ो की देख-रेख अच्छी तरह से की जाय तो पेड़ 30 से 40 वर्ष तक उतपादन की अवस्था में बने रहते है उपज की मात्रा किस्म विशेष जलवायु एवं पेड़ की आयु अनुसार प्राप्त होती है फिर भी 5 वर्ष की आयु के एक पेड़ से लगभग 400 से 600 तक अच्छे फल प्राप्त होते है।


दोस्तों, तो ये थी हमारे किशन भाई अमरूद की खेती कैसे करें और अधिक मुनाफा कैसे कमायें, हमे आशा है आपको अमरूद की खेती की जानकारी समझ में आ गई होगी | फिर भी आपका कोई भी सवाल है या सुझाव है,  तो हमें कमेंट बॉक्स में बता सकते हैं, हमसे पूछ सकते है,  दोस्तों इस ब्लॉग पर आए भी खेती बड़ी से सम्बंधित जानकारी दी जाएगी, जानकारी अच्छी लगे तो इस अपने दोस्तों के शत सोशल साईट पर शेयर जरुर करें, और हमारी इस वेबसाइट को सब्सक्राइब करें , धन्यवाद |


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कटहल की खेती कैसे करें | कटहल की खेती से कमाइए लाखों रुपए -


कटहल भारत का एक महत्वपूर्ण फल है। इसकी बागवानी बिना विशेष देखभाल के की जा सकती है। कटहल के कच्चे एवं पके दोनों प्रकार के फलों की उपयोगिता है। सब्जियों में कटहल का काफी महत्वपूर्ण स्थान है। 
Kathal ki kheti kaise kare


कच्चे फलों का आचार भी बनाया जाता है और पका फल खाया जाता है। इसकी सर्वाधिक खेती असम में होती है। इसके अतिरिक्त उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल और दक्षिण भारत के राज्यों में भी इसकी बागवानी बड़े पैमाने पर की जाती है। छोटानागपुर एवं संथाल परगना का यह प्रमुख फल माना जाता है। कटहल का उदगम स्थान भारतवर्ष ही है।

कटहल के लिए मिट्टी –
इसकी खेती सभी प्रकार की मिट्टी में की जा सकती है लेकिन गहरी दोमट तथा बलुई दोमट मिट्टी इसकी बागवानी के लिए सबसे उपयुक्त है। इसके लिए जल विकास का अच्छा प्रबंध होना आवश्यक है क्योंकि इनकी जड़े भूमि में अधिक पानी के जमाव को सहन नहीं कर सकती जिसके फलस्वरूप जल स्तर ऊपर उठने पर पौधे सूखने लगते हैं।

जलवायु –
मध्यम से अधिक वर्षा एवं गर्म जलवायु वाले क्षेत्र कटहल के खेती के लिए उपयुक्त होते है। यह देखा गया है कि छोटानागपुर एवं संथाल परगना तथा आस-पास के क्षेत्रों की टांड जमीन जिसमें मृदा पी.एच.मान सामान्य से थोड़ा कम, संरचना हल्का तथा जल का निकास अच्छा है, कटहल की खेती के लिए उपयुक्त पायी गयी है।

कटहल की किस्में –
कटहल का प्रसार अधिकतर बीज से होता है। अत: एक ही किस्म के बीज द्वारा तैयार पौधों में भिन्नता पायी जाती है। इसकी प्रमुख किस्में रसदार, खजवा, सिंगापुरी, गुलाबी, रुद्राक्षी आदि हैं। सिंगापुरी किस्म एक जल फल देने वाली किस्म है तथा गुणों में फल मध्यम श्रेणी के होते हैं। इसके अलावे कहीं-कहीं बारहमासी किस्में भी उगायी जाती हैं।

प्रसारण –
इसका प्रसारण अधिकतर बीज द्वारा किया जाता है। इसका प्रसारण इनाचिंग और गूटी द्वारा भी सफल पाया गया है। बड़े आकार एवं उत्तम किस्म के कटहल से बीज का चुनाव करना चाहिए। बीज को पके फल से निकलने के बाद ताजा ही बोना चाहिए।

पौध तैयार करना –
अच्छे स्वस्थ पके फलों के बीजों को निकालकर उन्हें एक की.ग्रा. पॉलीथिन की थैली में या गमलों में बीज को बो कर तैयार किया जाता हैं। जब पौधे 1 से 2 माह के हो जाते हैं तो उन्हें निश्चित स्थान पर सावधानी से लगा दिया जाता हैं। नवीन रोपित पौधे अधिक मरते हैं तथा वृक्षों में फूल नहीं आते हैं। इसका कारण यह हैं की स्थानांतरण में हुई जड़ों की क्षति पूर्ति को पूरा नहीं कर पते हैं। इसलिए कटहल के बीजों की उचित स्थान पर गड्ढा तैयार कर बुवाई कर देनी चाहिए। एक गड्ढे में कम से कम दो तीन बीज होना चाहिए। जब पौधे विकसित हो जाए तब एक स्वस्थ व ओजस्वी पौधा छोड़ कर अन्य को निकाल देना चाहिए।

पौधा लगाना –
भूमि की अच्छी तरह से जुताई करने के बाद पाटा चलाकर भूमि को समतल बना लेना चाहिए। इसके बाद 10 से 12 मीटर की दूरी पर 1 मीटर व्यास एवं उतनी ही गहराई का गड्ढा तैयार करना चाहिए। इन गड्ढों में 20 से 25 किग्रा. गोबर की सड़ी खाद अथवा कम्पोस्ट, 250 ग्राम सिंगल सुपर फ़ॉस्फेट, 500 म्युरियेट ऑफ़ पोटाश,1 किलो नीम की खल्ली तथा10  ग्राम थाइमेट को मिट्टी में अच्छी प्रकार मिलाकर भर देना चाहिए। रोपाई के लिए उपयुक्त समय जुलाई से सितम्बर है।

खाद एवं उर्वरक –
कटहल के पेड़ में प्रत्येक वर्ष फलन होती है अत: अच्छी पैदावार के लिए पौधे को खाद एवं उर्वरक पर्याप्त मात्रा में देना चाहिए। प्रत्येक पौधे को 20-25 कि.ग्रा. गोबर की सड़ी हुई खाद, 100 ग्रा. यूरिया, 200 ग्रा. सिंगल सुपर फास्फेट तथा 100 ग्रा. म्यूरेट ऑफ़ पोटाश प्रति वर्ष की दर से जुलाई माह में देना चाहिए। तत्पश्चात पौधे की बढ़वार के साथ खाद की मात्रा में वृद्धि करते रहना चाहिए। जब पौधे 10 वर्ष के हो जाये तब उसमें 80-100 कि.ग्रा. गोबर की खाद, 1 कि.ग्रा. यूरिया, 2 कि.ग्रा. सिंगल सुपर फास्फेट तथा 1 कि.ग्रा. म्यूरेट ऑफ़ पोटाश प्रति वर्ष देते रहना चाहिए। खाद एवं उर्वरक देने के लिए पौधे के क्षत्रक के नीचे मुख्य तने से लगभग 1-2 मी. दूरी पर गोलाई में 25-30 सें.मी. गहरी खाई में खाद के मिश्रण को डालकर मिट्टी से ढक देना चाहिए।

कटहल की फसल में सिंचाई –
नवजात पौधों को कुछ दिन तक बराबर पानी देते रहें। पौधा लगाने के बाद प्रारंभिक वर्ष में पौधों की गर्मियों में प्रति सप्ताह और जाड़े में 15 दिनों के अंतर पर सिंचाई करनी चाहिए। बड़े पेड़ों की गर्मी में 15 दिन और जाड़े में एक महीने के अंतर से सिंचाई करनी चाहिए। नवम्बर-दिसम्बर माह में फूल आते हैं। इसलिए इस अवधि में सिंचाई नहीं करना चाहिए।

निंदाई-गुड़ाई –
निंदाई-गुड़ाई करके पौधे के थाले साफ़ रखने चाहिए। बड़े पेड़ों के बागों की वर्ष में दो बार जुताई करनी चाहिए। कटहल के बाग़ में बरसात आदि में पानी बिल्कुल नहीं जमना चाहिए।

कीट एवं रोग –
कटहल में कीट एवं रोग का प्रकोप बहुत कम होता है। इसमें लगने वाले प्रमुख रोग फल गलन है। यह रोग राइजोपस आर्टोकारपाई नामक कवक के कारण होता है। इसका प्रकोप फल की छोटी अवस्था में होता है। इसके कारण कटहल के फल सड़कर गिरने लगते हैं इस बीमारी की रोकथाम के लिए डाइथेन एम-45 के 2 ग्राम प्रति लीटर में घोलकर 15 दिनों के अंतराल पर 2-3 छिड़काव करना चाहिए। कीटों में मिली बग एवं तना छेदक प्रमुख हैं।

मिली बग - ये नये फूल-फल एवं डंठलों का रस चूसते हैं फलस्वरूप फूल एवं फल गिर जाते हैं। इसकी रोकथाम के लिए मई-जून में बगीचे की जुताई कर देनी चाहिए। इसके उपचार के लिए 3 मिली. इंडोसल्फान प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।

तना छेदक - ये वृक्ष के तने को छेदकर सुरंग बना देते हैं और अंदर के जीवित भाग को खाते हैं। इसका आक्रमण अधिक होने पर पेड़ की डालियाँ एवं तना सूख जाते हैं। इसके नियंत्रण के लिए वृक्ष के तना एवं डाली पर जहाँ छेद नजर आये उसे किरासन तेल में रुई भिंगोकर भर दें और छेद के मुँह को मिट्टी से भर दें।

कटहल की तुड़ाई –
फलो कि तुड़ाई उनके उपयोग पर निर्भर करती है सब्जी हेतु तुड़ाई फल जब पूर्ण बृद्धि कर चूका हो तथा हरा हो तभी करते है आवश्यकता नुसार फलो को ब्रिक्षो से तोड़ते रहते है पके फलो के लिए तुड़ाई तब करते है जब फलो का रंग हल्का पिला रंग में बदलने लगे 15-16 वर्ष के पूर्ण बिकसित पेड़ो से 200 - 250 फल प्रति पेड़ प्राप्त हो जाते है | प्रति हेक्टेयर 400 - 500 क्विंटल तक फल प्राप्त हो जाते है |

कटहल की उपज –
परागण के तिन माह बाद फल तोड़ने लायक हो जाते है जो कि सब्जी के रूप में उपयोग में लाये जाते है फल 4-5 माह में पक कर तैयार हो जाते है जो कि पके खाए जाते है कटहल के फल आमतौर पर मार्च से जून तक मिलते है समुद्रतल से अधिक उंचाई वाले क्षेत्रों में फल सितम्बर तक मिलते है कटहल के पौधों से प्रत्येक वर्ष एक सामान पैदावार नही होती है . अच्छी तरह से पूर्ण विकसित 15-16 वर्ष के पौधें से करीव 250 100-400 फल प्रतिवर्ष मिलते है जिनमे से कुछ फलों का वजन 20 किलो ग्राम तक होता है पैदावार कटहल कि फसल पर निर्भर करती है फिर भी एक पौध से औसतन किलो ग्राम तक पैदावार होती है|

कटहल का भंडारण –
कटहल के कच्चे फल कमरे के ताप पर 7-8 दिन तक तथा पके फल 3-4 दिन तक भंडारित किये जा सकते है शीत ग्रहों 11.5 -12.5 से ग्रेड तथा 85-90 प्रतिशत - में . आपेक्षिक आद्रता पर 6 सप्ताह तक भंडारित कर सकते है|

कांट – छाँट –
कटहल के पेड़ को उचित आकार देने के लिए - कांट छाँट कि जाती 2 के अंतर पर कांट वर्षो - छाँट करनी चाहिए इस समय कमजोर और रोग ग्रस्त तथा एक दुसरे से उलझी व सुखी शाखाओ को काट देते है काट - छांट अक्तूबर माह में करते है|

दोस्तों, तो ये थी हमारे किशन भाई कटहल की खेती कैसे करें और अधिक मुनाफा कैसे कमायें, हमे आशा है आपको कटहल की खेती की जानकारी समझ में आ गई होगी | फिर भी आपका कोई भी सवाल है या सुझाव है, तो हमें कमेंट बॉक्स में बता सकते हैं, हमसे पूछ सकते है,  दोस्तों इस ब्लॉग पर आए भी खेती बड़ी से सम्बंधित जानकारी दी जाएगी, जानकारी अच्छी लगे तो इस अपने दोस्तों के शत सोशल साईट पर शेयर जरुर करें, और हमारी इस वेबसाइट को सब्सक्राइब करें , धन्यवाद |

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आलू की खेती कैसे करें | आलू की खेती से कमाइए लाखों रुपए -


आलू भारत की सबसे महत्वफपूर्ण फसल है। तमिलनाडु एवं केरल को छोडकर आलू सारे देश में उगाया जाता है। किसान आज से लगभग 7000 साल पहले से आलू उगा रहे हैं।

Aloo ki kheti kaise karen


आलू को सब्जियों का राजा कहा जाता है, भारत में शायद ही कोई ऐसा रसोई घर होगा, जहाँ पर आलू ना दिखे । इसकी मसालेदार तरकारी, पकौड़ी,  चॉट, पापड चिप्स जैसे स्वादिष्ट पकवानो के अलावा अंकल चिप्स, भुजिया और कुरकुरे भी हर जवां के मन को भा रहे हैं। प्रोटीन, स्टार्च, विटामिन सी और के  अलावा आलू में अमीनो अम्ल जैसे ट्रिप्टोफेन, ल्यूसीन, आइसोल्यूसीन आदि काफी मात्रा में पाये जाते है जो शरीर के विकास के लिए आवश्यक है।

आलू के लियें जलवायु –
आलू के लिए छोटे दिनों कि अवस्था आवश्यक होती है भारत के बिभिन्न भागो में उचित जलवायु कि उपलब्धता के अनुसार किसी न किसी भाग में सारे साल आलू कि खेती कि जाती बढवार के समय आलू को मध्यिम शीत की आवश्यवकता होती है। मैदानी क्षेत्रो  में बहुधा शीतकाल (रबी) में आलू की खेती प्रचलित है । आलू की वृद्धि एवं विकास के लिए इष्टतम तापक्रम 15- 25 डि से  के मध्य होना चाहिए। इसके अंकुरण के लिए लगभग 25 डि से. संवर्धन के लिए 20 डि से. और कन्द विकास के लिए 17 से 19 डि से. तापक्रम की आवश्यकता होती है, उच्चतर तापक्रम (30 डि से.) होने पर आलू  विकास की प्रक्रिया प्रभावित होती है अक्टूबर से मार्च तक,  लम्बी रात्रि तथा चमकीले छोटे दिन आलू बनने और बढ़ने के लिए अच्छे होते है। बदली भरे दिन, वर्षा तथा उच्च आर्द्रता का मौसम आलू की फसल में फफूँद व बैक्टीरिया जनित रोगों को फैलाने के लिए अनुकूल दशायें हैं।

भूमि व उसकी तयारी –
आलू को क्षारीय मृदा के अलावा सभी प्रकार के मृदाओ में उगाया जा सकता है परन्तु जीवांश युक्त रेतीली दोमट या सिल्टी दोमट भूमि इसकी खेती के लिए सर्वोत्तम है भूमि में उचित जल निकास का प्रबंध अति आवश्यक है मिटटी का P H मान 5.2 से 6.5 अत्यंत उपयुक्त पाया गया है - जैसे जैसे यह P H मान ऊपर बढ़ता जाता है दशाएं अच्छी उपज के लिए प्रतिकूल हो जाती है| आलू के कंद मिटटी के अन्दर तैयार होते है, अत मिटटी का भली भांति भुर भूरा होना नितांत आवश्यक है पहली जुताई मिटटी पलटने वाले हल से करे दूसरी और तीसरी जुताई देसी हल या हीरो से करनी चाहिए यदि खेती में धेले हो तो पाटा चलाकर मिटटी को भुरभुरा बना लेना चाहिए बुवाई के समय भूमि में पर्याप्त नमी का होना आवश्यक है यदि खेत में नमी कि कमी हो तो खेत में पलेवा करके जुताई करनी चाहिए

आलू की किस्में –
केंद्रीय आलू अनुसंधान शिमला की ओर से आलू की कई किस्में विकसित की गई हैं,जो इस प्रकार हैं।

कुफरी अलंकार - इस किस्म में फसल 70 दिनों में तैयार हो जाती है मगर यह किस्म पछेती अंगमारी रोग के लिए कुछ हद तक प्रतिरोधी है। यह किस्म भी प्रति हेक्टेयर 200-250 क्विंटल उपज होती है।

कुफरी चंद्र मुखी – आलू की इस किस्म में फसल 80 से 90 दिनों में तैयार हो जाती है और उपज 200 से 250 क्विंटल तक होती है।

कुफरी नवताल जी 2524 - आलू की इस किस्म में फसल 75 से 85 दिनों में तैयार हो जाती है। इसमें 200 से 250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज होती है।

कुफरी बहार 3792 ई – इस किस्म में फसल 90 से 110 दिनों में तैयार हो जाती है, जबकि गर्मियों में 100 से 135 दिनों में फसल तैयार होती है।

कुफरी शील मान - आलू की खेती की यह किस्म 100 से 130 दिनों में तैयार होती है, जबकि उपज 250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होती है।

कुफरी ज्योति - इस किस्म में फसल 80 से 150 दिनों में तैयार हो जाती है। यह किस्म 150 से 250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है।

कुफरी सिंदूरी - इस किस्म से आलू की फसल 120 से 125 दिनों में तैयार हो जाती है और 300 से 400 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज होती है।

कुफरी बादशाह - आलू की खेती में इस किस्म में फसल 100 से 130 दिन में तैयार हो जाती है और 250-275 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज होती है।

कुफरी देवा - इस किस्म में आलू की फसल 120 से 125 दिनों में तैयार हो जाती है और 300 से 400 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज होती है।

कुफरी लालिमा - इस किस्म में फसल सिर्फ 90 से 100 दिन में ही तैयार हो जाती है। यह अगेती झुलसा के लिए मध्यम अवरोधी है।

 कुफरी लवकर - इस किस्म में 100 से 120 दिनों में फसल तैयार हो जाती है और 300 से 400 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज होती है।

 कुफरी स्वर्ण - इस किस्म से फसल 110 दिन में तैयार हो जाती है और उपज 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।

संकर किस्में - कुफरी जवाहर जेएच 222 - इस किस्म में 90 से 110 दिन में फसल तैयार हो जाती है और खेतों में अगेता झुलसा और फोम रोग की यह प्रतिरोधी किस्म है। इसमें 250 से 300 क्विंटल उपज होती है।

ई 4486 - 135 दिन में तैयार होने वाली फसल की इस किस्म में 250 से 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज तैयार होती है। यह किस्म हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, गुजरात और मध्य प्रदेश के लिए अधिक उपयोगी है।

आलू की नई किस्में - इसके अलावा आलू की कुछ नयी किस्में भी हैं। इनमें कुफरी चिप्सोना-1, कुफरी चिप्सोना-2, कुफरी गिरिराज और कुफरी आनंद भी शामिल है।

बुआई का समय एवं बीज की मात्रा –
उत्त र भारत में, जहॉ पाला पडना आम बात है, आलू को बढने के लिए कम समय मिलता है। अगेती बुआई से बढवार के लिए लम्बा समय तो मिल जाता है परन्तुप उपज अधिक नही होती क्योंकि ऐसी अगेती फसल में बढवार व कन्दब का बनना प्रतिकूल तापमान मे होता है साथ ही बीजों के अपूर्ण अंकुरण व सडन का खतरा भी बना रहता है। अत: उत्तर भारत मे आलू की बुआई इस प्रकार करें कि आलू दिसम्बर के अंत तक पूरा बन जाऐ। उत्तर-पश्चिमी भागों मे आलू की बुआई का उपयुक्तब समय अक्तू्बर माह का पहला पखवाडा है। पूर्वी भारत में आलू अक्तूबर के मध्य‍ से जनवरी तक बोया जाती है। इसके लिए 25 से 30 क्विंटल बीज प्रति हैक्टेयर पर्याप्त होता है।

बुआई की विधि –
पौधों में कम फासला रखने से रोशनी,पानी और पोषक तत्वोंह के लिए उनमें होड बढ जाती है फलस्वपरूप छोटे माप के आलू पैदा होते हैं।अधिक फासला रखने से प्रति हैक्टे,यर में पौधो की संख्या कम हो जाती है जिससे आलू का मान तो बढ जाता है परन्तुल उपज घट जाती है। इसलिए कतारों और पौधो की दूरी में ऐसा संतुलन बनाना होता है कि न उपज कम हो और न आलू की माप कम हो। उचित माप के बीज के लिए पंक्तियों मे 50 से.मी. का अन्तलर व पौधों में 20 से 25 से.मी. की दूरी रखनी चाहिए।

आलू की खेती में सिंचाई –
आलू कि सफल खेती के लिए सिंचाई का महत्व पूर्ण योगदान है मैदानी क्षेत्रो में पानी कि उपलब्धता होने पर ही खेती कि जा सकती है परन्तु पहाड़ी क्षेत्रो में आलू कि खेती वर्षा पर निर्भर करती है इसकी खेती में पानी कि कमी किसी भी अवधी में होने से आलू का बढ़वार , बिकास और कंद के निर्माण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है ऐसी जगह जहाँ पानी ठहरता हो वंहा इससे हानी होती है आलू कि पहली सिंचाई अंकुरण के उपरांत करनी चाहिए इसके बाद कि 10-12 दिन के अंतराल पर करे प्रत्येक बार हलकी सिंचाई करनी चाहिए इस बात का ध्यान सिंचाइयाँ रहे खूंड तिन चौथाई से अधिक न डूबने पाए कंद निर्माण के समय पानी कि कमी किसी भी हालत में नहीं होनी चाहिए इसकी खेती 500 लगभग मी.ली. पानी कि आवश्यकता होती है आलू कि खुदाई करने के 10 दिन पूर्ब सिंचाई बंद कर देनी चाहिए इससे आलू के कंदों का छिलका कठोर हो जाता है जिससे खुदाई करते समय छिलका नहीं छिलता और कंदों के भण्डारण क्षमता में बृद्धि हो जाती है |

खरपतवार प्रबंधन –
आलू की बुवाई के 20-25 दिन बाद पौधे 8-10 सेमी० ऊचाई के हो जातें हैं, तो लाइनों के बीच स्प्रिंग टायिन कल्टीवेटर या खुरपी से खरपतवार निकालने का कार्य करे, मैदानी क्षेत्रो में आलू की फसल में खरपतवारों का प्रकोप  बुवाई के 4-6 सप्ताह बाद अधिक होता है, खरपतवारों के रासायनिक नियंत्रण के लिए पेंडामेथलिन 30% का 3.3 लीटर मात्रा का 100 लीटर पानी में घोलकर बुवाई के 1-2 दिन बाद तक छिडकाव कर देना चाहिए I
कीट नियंत्रण –
रोग के साथ-साथ आलू कि फसल में कीट भी अपना प्रभाव दिखातें हैं, कीट नियंत्रण के लिए जैसे माहू या एफिड, माहू आलू कि फसल में प्रत्यक्ष रूप से हानि नहीं पहुँचाता बल्कि रोग मुक्त बीज उत्पादन पर रोक लगाने में अहम् भूमिका है, इसके नित्रायण के लिए मैदानी भागो में आलू कि बुवाई 15 अक्तूबर तक तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश के मैदानी भागों में 25 अक्तूबर तक कर लेनी चाहिएI फसल को माहू से बचाने के लिए फोरेट 10 जी, 100 कि०ग्रा० प्रति हैक्टर कि दर से मिटटी चढाने के समय प्रयोग करना चाहिए, जब फसल पर माहू का प्रकोप दिखाई पड़े तो डाईमीथोएट 30 ईसी० कि 1 लीटर मात्रा 1000 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टर कि दर आलू कि फसल में छिडकाव करना चाहिएI इसके साथ साथ किसान भाइयों दूसरा कीट लीफ हापर आलू कि फसल में लगता है, लीफ हापर  के निम्फ तथा प्रौढ़ हरी पत्तियों का रस चूसते हैं, इसकी रोकथाम के लिए मोनोक्रोटोफास 40 ई सी. कि 1.2 लीटर कि मात्रा को 1000 लीटर पानी में मिलकर छिडकाव करें  आवश्यकता पड़ने पर दूसरा छिडकाव 10-15 दिन के अन्तराल पर करना चाहिए I

रोग नियंतरण –
रोग नियंत्रण के लिए जैसे झुलसा रोग लगता है, यह रोग पौंधो की पत्तियों, डंठलों, एवं कन्दो सभी पर लगता है, इस रोग के लक्षण पत्तियों में हलके पीले धब्बे दिखाई देते हैं पत्तियों के निचले भाग पर इन धब्बो में अंगूठी नुमा सफेद फफूंदी आ जाती है, इस रोग के नियंत्रण के लिए प्रतिरोधी किस्मो की बुवाई करनी चाहिए, फसल में लक्षण दिखाई देने के पूर्व मैन्कोजेब 0.2% का घोल बना कर छिडकाव8-10 दिन के अन्तराल पर करते रहना चाहिए, फसल में भयंकर प्रकोप होने पर मेटालेक्सिल युक्त दवाओं में 0.25 % के घोल का 1-2 बार छिडकाव करना अति आवश्यक है, इसके पश्चात साथ ये भी देखना है कि एक रोग कामन स्केब होता है, इस रोग से फसल कि पैदावार में कोई कमीं नहीं आती लेकिन कन्द भददे हो जाते हैं, रोग ग्रस्त कन्दो के छिल्के पर लाल सा या भूरे धब्बे बनतें हैं, बीज वाले अलुओ को बुवाई से पहले 3% बोरिक एसिड के घोल में 30 मिनट तक उपचारित करना चाहिए I

फसल की खुदाई –
अगेती फसल में अधिक कीमत प्राप्त करने के लिए बुवाई के 60-70 दिन के उपरांत खुदाई करनी चाहिए, जिससे कि आप को अच्छा पैसा मिल सके, मुख्य फसल कि खुदाई 20-30 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान पहुँचने से पहले कर ले ताकि फसल अधिक तापमान पर म्रदुगलन तथा काला गलन जैसे रोगों से फसल को बचाया जा सकेI खेत में खुदाई के समय कटे और सड़े आलू के कंदों को अलग कर देना चाहिए, खुदाई छंटाई और बोरियों में भरते समय और बाजार भेजने के समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि आलू काछिलका न उतरे साथ ही उन्हें किसी प्रकार का क्षति नहीं होनी चाहिए तो बाजार भाव अच्छा रहता है|

आलू की उपज –
आलू कि जल्दी तैयार होने वाली पैदावार अपेक्षाकृत कम होती है, जब कि लम्बी अवधि वाली किस्मे अधिक उपज देती हैं, सामान्य किस्मो कि अपेक्षा संकर किस्मो से अधिक पैदावार मिलती है, संकर किस्मों कि उपज 600-800 कुंतल तक प्रति हैक्टर प्राप्त होती है, तथा सामान्य किस्मों से उपज 350-400 कुंतल तक उपज प्रति हैक्टर प्राप्त होती है I

भण्डारण –
आलू शीघ्र ख़राब होने वाली वस्तु है अत इसके लिए अच्छे भण्डारण कि सुबिधा का होना नितांत आवश्यक है पर्वतीय क्षेत्रो में कम तापमान होने के कारण वंहा भण्डारण कि कोई बिशेष समस्या नहीं होती है भण्डारण कि बिशेष समस्या मैदानी भागो में होती है मैदानी क्षेत्रो में आलू को ख़राब होने से बचाने के लिए शीत भंडार गृहों में रखने कि आवश्यकता होती है इन शीत भंडार गृहों में तापमान डिगरी 1 से 2.5 डिग्री सेल्सियस और आपेक्षिक आद्रता 90-95% होती है

दोस्तों, तो ये थी हमारे किशन भाई आलू की खेती कैसे करें और अधिक मुनाफा कैसे कमायें, हमे आशा है आपको आलू की खेती की जानकारी समझ में आ गई होगी| फिर भी आपका कोई भी सवाल है या सुझाव है, तो हमें कमेंट बॉक्स में बता सकते हैं, हमसे पूछ सकते है, दोस्तों इस ब्लॉग पर आए भी खेती बड़ी से सम्बंधित जानकारी दी जाएगी, जानकारी अच्छी लगे तो इस अपने दोस्तों के शत सोशल साईट पर शेयर जरुर करें, और हमारी इस वेबसाइट को सब्सक्राइब करें ,
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चुकन्दर की खेती कैसे करें | चुकन्दर की खेती से कमाइए लाखों रुपए - Beetroot Farming in Hindi


चुकंदर (Beetroot) की फसल की लिए ना तो जायदा गर्मी और ना ही जायदा सर्दी सम जलवायु उपयुक्त रहती है| ज्यादा सर्दी और गर्मी का फसल पर बुरा प्रभाव पड़ता है| इसकी खेती पहाड़ी क्षेत्रों में भी सफलतापुर्वक की जा सकती है| चुकंदर (Beetroot) की फसल के लिए 30 से 60 सेंटीमीटर वार्षिक वर्षा उपयुक्त रहती है| पौधों की वृद्धि के समय मौसम चमकीला और सम होना चाहिए| ज्यादा तापमान पर इसकी जड़ो में चीनी की मात्रा बढ़ने लगती है

Beetroot Farming in Hindi


उपयुक्त भूमि और उसकी तयारी -
चुकंदर की खेती किसी भी प्रकार की उपजाऊ मिट्टी में की जा सकती है| परन्तु इसके लिए सबसे उपयुक्त दोमट और बलुई दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त है| जहां पानी की निकासी की भी व्यवस्था होनी चाहिए| इसको लवणीय मिटटी में भी उगाया जा सकता है| प्रथम जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करने के पश्चात एक बार हेरो चलाकर कल्टीवेटर से क्रॉस में जुताई करनी चाहिए एवं अंत में पाटा चलाकर खेत को समतल कर देना चाहिए। खेत की जुताई के समय उसमे पर्याप्त नमी होनी चाहिए।
चुकन्दर की उन्नत शील किस्मे -
चुकंदर (Beetroot) की किस्में इस प्रकार है जैसे- इग्लोपोली, ऐजे पोली, ईरो टाइप ई, एनपी पोली, मेरोबी मेरोक पोली, मेरोबी मेगना पोली, ब्रुश ई ट्रिप्लेक्स, रोमांस काया, बीजीडब्लू- 674, एमएसएच- 102, यूएसएच- 9, यूएस- 75 और यूएच- 35 इत्यादि प्रमुख है|

बीज की मात्रा -
चुकन्दर के उत्तम सफल उत्पादन के लिए बीज का चुनाव मुख्य है । बीज का उत्तम होना आवश्यक है । साधारणत: बीज की मात्रा 6-8 किलो प्रति हैक्टर की आवश्यकता होती है । बीज की मात्रा, बुवाई का ढंग, समय व किस्म पर भी निर्भर करता है ।

बुवाई का समय व तरीका -
बुवाई खेत तैयारी के बाद सारे खेत में एक साथ न बोकर 10-15 दिन के अन्तर से बोयें जिससे जड़ें लम्बे समय तक मिलती रहें। जाड़े की फसल होने के कारण बोने का समय अक्टूबर-नवम्बर तक होता है । बीज की छोटी क्यारियां बनायें तथा कतारों में लगायें। इन कतारों की दूरी 30 सेमी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 10-12 सेमी. रखें जिससे बड़ी जड़ें आपस में मिल न सकें । बीज की गहराई अधिक न लेकर 1-5-2 सेमी. रखें जिससे अंकुरण में परेशानी न आये। गहरा बीज गल, सड़ जाता है। बगीचों के लिये बीज 20-25 ग्राम 8-10 मी. क्षेत्र के लिए काफी होता है। यदि गमलों में लगाना हो तो 2-3 बीज बोयें तथा उपरोक्त समय पर बोयें। कतारों की दूरी 25-30 सेमी. व पौधों की दूरी 8-10 सेमी. रखें ।

खाद एवं उर्वरकों -
जड़ों की फसल होने से देशी खाद या कम्पोस्ट खाद की मात्रा भूमि की किस्म के ऊपर निर्भर करती है । बलुई दोमट भूमि के लिये 15-20 ट्रौली खाद (एक ट्रौली में एक टन खाद) प्रति हैक्टर खेत तैयार करते समय दें । यदि भूमि रेतीली है तो हरी खाद के रूप में भी दें जिससे खेत में ह्यूमस व पोषक तत्वों की प्राप्ति हो जाये । रासायनिक खाद या उर्वरकों की मात्रा, जैसे-नत्रजन 60-70 किलो, फास्फोरस 60 किलो तथा पोटाश 80 किलो प्रति हैक्टर के लिये पर्याप्त होता है । नत्रजन की आधी मात्रा, फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा को बुवाई से 15-20 दिन पूर्व मिट्‌टी में मिलायें तथा शेष नत्रजन को बोने के बाद 20-25 दिन व 40-45 दिन के बाद दो बार में छिड़कने की सिफारिश की जाती है । इस प्रकार से जड़ों का विकास ठीक होता है ।

फसल में सिचाई प्रबंधन -
चुकंदर को अधिक पानी की आवश्यकता नही होती है सिचाइयों कि संख्या व समय सर्दियों कि वर्षा के ऊपर निर्भर करता है साधारणत: पहली दो सिचाइया बुवाई के १५-२० दिन के अंतर पर करते है बाद में फसल कि कटाई तक २०-२५ दिन के अंतर पर सिचाइया करते रहते है आवश्यकता से अधिक पानी खेत में नहीं ठहरने देना चाहिए इससे शर्करा कि मात्रा पर बुरा प्रभाव पड़ता है खुदाई के समय भूमि में कम नमी रखना , सुक्रोज कि मात्रा बढ़ाता है ।

खरपतवारों का नियन्त्रण -
चुकंदर (Beetroot) की फसल में खरपतवार के लिए पहली निराई गुड़ाई बुवाई के 25 से 35 दिन बाद करनी चाहिए, इसके बाद आवश्यतानुसार निराई गुड़ाई करनी चाहिए| यदि खरपतवारनाशी से खरपतवार पर नियन्त्रण चाहते है, तो 3 लिटर पेंडीमिथेलिन को 800 से 900 लिटर पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर फसल बुवाई से 2 दिन तक नम मिट्टी में छिड़काव करना चाहिए, जिसे की खरपतवार का जमाव ही नही होगा| यदि हुआ तो बहुत कम होगा 

किट नियंत्रण -
चुकंदर (Beetroot) में मुख्यतः पत्ती काटने वाले कीड़े, विटल और सुंडी का प्रकोप होता है| इनकी रोकथाम के लिए 1.5 लिटर एंडोसल्फान या 1.5 लिटर मैलाथियान 2 प्रतिशत को 700 से 800 लिटर पानी में मिलाकर 10 से 15 दिन के अन्तराल में प्रति हेक्टेयर दो बार छिड़काव करना चाहिए 

रोग नियंत्रण -
चुकंदर की फसल में दो तरह के रोग ज्यादा लगते है, जैसे पत्ती छेदक और जड़ या तना गलन रोग इनकी रोकथाम के लिए बीज को 2 ग्राम बाविस्टिन से प्रति किलोग्राम बीज को उपचारित कर के बोना चाहिए| रोगी पौधों को उखाड़ कर मिट्टी में दबा देना चाहिए|इसके साथ डाइथेन एम 45 प्रति हेक्टेयर 1 लिटर का 700 से 800 लीटर पानी में घोल बनाकर 10 से 15 दिन के अन्तराल में दो बार छिडकाव करना चाहिए|

फसल खुदाई -
खुदाई बड़ी व मीठी जड़ों की करें तथा बाजार की मांग के हिसाब से करते रहे। खुदाई खुरपी या पावड़े से करें तथा जड़ें कट न पायें। खोदने से पहले हल्की सिंचाई करें जिससे आसानी से खुद सकें तथा ग्रेडिंग करके बाजार भेजें जिससे मूल्य अधिक मिल सके ।

चुकन्दर की उपज -
अनुकूल मौसम और उपरोक्त विधि से खेती करने के पश्चात चुकंदर की पैदावार 65 से 80 टन प्रति हेक्टेयर होनी चाहिए  तो उपरोक्त विधि के अनुसार किसान भाई चुकंदर की खेती कर के अच्छा मुनाफा प्राप्त कर सकते है 

दोस्तों, तो ये थी हमारे किशन भाई चुकन्दर की खेती कैसे करें और अधिक मुनाफा कैसे कमायें, हमे आशा है आपको चुकन्दर की खेती की जानकारी समझ में आ गई होगी| फिर भी आपका कोई भी सवाल है या सुझाव है,तो हमें कमेंट बॉक्स में बता सकते हैं, हमसे पूछ सकते है, दोस्तों इस ब्लॉग पर आए भी खेती बड़ी से सम्बंधित जानकारी दी जाएगी, जानकारी अच्छी लगे तो इस अपने दोस्तों के शत सोशल साईट पर शेयर जरुर करें, और हमारी इस वेबसाइट को सब्सक्राइब करें
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